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संहारक ही नहीं उपकारी और हितकारी देव है भोलेनाथ

इलाहाबाद । भगवान् भोलेनाथ सदैव उपकारी और हितकारी देव है, शास्त्रों के अनुसार त्रिदेवों में शिवजी को संहार के देवता भी माना गया है, अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना की तुलना में शिवजी की पूजा-अर्चना को अत्यन्त सरल माना गया है, अन्य देवताओं की भाँति शिवजी को सुगंधित पुष्पमालाओं और मीठे पकवानों की आवश्यकता ही नहीं, शिव तो स्वच्छ जल, बिल्व पत्र, धतूरा से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

शिवजी को मनोरम वेशभूषा और अलँकारों की आवश्यकता भी नहीं है, वे तो औघड़ बाबा हैं, जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रूद्राक्ष की माला, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाये एवम् हाथ में त्रिशूल पकड़े हुयें भगवान् भोलेनाथ सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं, इसीलिये शिवजी को नटराज की संज्ञा दी गई है।

सज्जनों! भगवान् भोलेनाथ की वेशभूषा से जीवन और मृत्यु का बोध होता है, शीश पर गंगा और चन्द्रमा जीवन एवम् कला के द्योतक हैं, शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है, यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुयें अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है, रामचरितमानस में शिवजी को नाना वाहन नाना भेष वाले गणों के अधिपति कहे गयें है।

भगवान् शिवशंकरजी जन-सुलभ तथा आडम्बर विहीन वेष को ही धारण करते हैं, शिवजी नीलकंठ कहलाते हैं, क्योंकि समुद्र मंथन के समय जब देवगण एवम् असुरगण अद्भुत और बहुमूल्य रत्नों को हस्तगत कर रहे थे तब कालकूट महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, तभी से शिवजी नीलकंठ कहलाये, क्योंकि विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया था।

ऐसे परोपकारी और अपरिग्रही शिव का चरित्र वर्णित करने के लिए ही शिवमहापुराण की रचना की गई है, सज्जनों! सभी शिव-भक्तो को शिवपुराण अवश्य पढ़नी चाहिये, शिवपुराण पूर्णत: भक्ति ग्रन्थ है, शिवपुराण में कलियुग के पापकर्म से ग्रसित व्यक्ति को मुक्ति के लिये शिव-भक्ति का मार्ग सुझाया गया है।

मनुष्य को निष्काम भाव से अपने समस्त कर्म भगवान् शिव-शंकरजी को अर्पित कर देने चाहियें, वेदों और उपनिषदों में प्रणव ओऊम् के जप को मुक्ति का आधार बताया गया है प्रणव के अतिरिक्त गायत्री-मन्त्र के जप को भी शान्ति और मोक्षकारक कहा गया है, परन्तु शिव-पुराण में आठ संहिताओं का उल्लेख प्राप्त होता है, जो मोक्ष कारक हैं।

ये संहितायें हैं- विद्येश्वर संहिता, रुद्र संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलास संहिता, वायु संहिता (पूर्व भाग) और वायु संहिता (उत्तर भाग) इस विभाजन के साथ ही सर्वप्रथम शिवपुराण’ का माहात्म्य प्रकट किया गया है, इस प्रसंग में चंचुला नामक एक पतिता स्त्री की कथा है जो शिव-पुराण को सुनकर स्वयं सद्गति को प्राप्त हो जाती है, यही नहीं, वह अपने कुमार्गगामी पति को भी मोक्ष दिला देती है।

विद्येश्वर संहिता में शिवरात्रि व्रत, पंचकृत्य, ओंकार का महत्त्व, शिवलिंग की पूजा और दान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है, शिवजी की भस्म और रुद्राक्ष का महत्त्व भी बताया गया है, रुद्राक्ष जितना छोटा होता है, उतना ही अधिक फलदायक होता है, खंडित रुद्राक्ष, कीड़ों द्वारा खाया हुआ रुद्राक्ष या गोलाई रहित रुद्राक्ष कभी धारण नहीं करना चाहिये।

सर्वोत्तम रुद्राक्ष वह है जिसमें स्वयं ही छेद होता है, सभी वर्ण के मनुष्यों को प्रात:काल की भोर वेला में उठकर सूर्य की ओर मुख करके देवताओं अर्थात् शिवजी का ध्यान करना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति को कमाये हुये धन के तीन भाग करके एक भाग धन वृद्धि में, एक भाग उपभोग में और एक भाग धर्म-कर्म में व्यय करना चाहिये, रुद्र-संहिता में शिवजी का जीवन-चरित्र वर्णित है, इसमें नारद मोह की कथा, सती का दक्ष-यज्ञ में देह त्याग, पार्वतीजी से विवाह का विस्तार से वर्णन है।

इस में मदन (काम) दहन, कार्तिकेय और गणेश पुत्रों का जन्म, पृथ्वी परिक्रमा की कथा, शंखचूड़ से युद्ध और उसके संहार की कथा का विस्तार से उल्लेख है, शिव-पूजा के प्रसंग में कहा गया है कि दूध, दही, मधु, घृत और गन्ने के रस (पंचामृत) से स्नान कराके बिल्वपत्र, चम्पक, पाटल, कनेर, मल्लिका तथा कमल के पुष्प चढ़ायें, फिर धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल अर्पित करें, इससे शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं।

इसी संहिता में सृष्टि खण्ड के अन्तर्गत जगत् का आदि कारण भगवान् शिव-शंकरजी को माना गया हैं, शिवजी से ही आद्यशक्ति माया’ का आविर्भाव होता हैं, फिर शिवजी से ही ब्रह्मा और विष्णु की उत्पत्ति बताई गई है, शतरुद्र संहिता में शिव के अन्य चरित्रों-हनुमानजी, श्वेत मुख और ऋषभदेवजी का वर्णन है, उन्हें शिवजी का अवतार कहा गया है।

शिवजी की आठ मूर्तियां भी बताई गई हैं, इन आठ मूर्तियों से भूमि, जल, अग्नि, पवन, अन्तरिक्ष, क्षेत्रज, सूर्य और चन्द्र अधिष्ठित हैं, इस संहिता में शिवजी के सुरम्य मनमोहक अर्द्धनारीश्वर रूप धारण करने की कथा भी बताई गयी है, यह स्वरूप सृष्टि-विकास में मैथुनी क्रिया के योगदान के लिए धरा गया था।

शिवपुराण की शतरुद्र संहिता के द्वितीय अध्याय में भगवान् शिवजी को अष्टमूर्ति कहकर उनके आठ रूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान एवम् महादेव के नामों से उल्लेख है, शिवजी के इन अष्ट मूर्तियों द्वारा पाँच महाभूत तत्व, ईशान (सूर्य), महादेव (चंद्र), क्षेत्रज्ञ (जीव) अधिष्ठित हैं।

चराचर विश्व को धारण करना (भव), जगत के बाहर भीतर वर्तमान रह स्पन्दित होना (उग्र), आकाशात्मक रूप (भीम), समस्त क्षेत्रों के जीवों का पापनाशक (पशुपति), जगत का प्रकाशक सूर्य (ईशान), धुलोक में भ्रमण कर सबको आह्लाद देना (महादेव) रूप है, इसी संहिता में भगवान् विष्णुजी द्वारा शिवजी के सहस्त्र नामों का वर्णन भी है।

साथ ही शिवरात्रि व्रत के माहात्म्य के संदर्भ में व्याघ्र और सत्यवादी मृग परिवार की कथा भी है, भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्रीनाथ में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है, इसी आशय की महिमा को शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है-

तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।
जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।
दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।
केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।

इस संहिता में मनुष्यों द्वारा भगवान् शिवजी के लिये तप, दान और ज्ञान का महत्त्व समझाया गया है, यदि निष्काम कर्म से तप किया जाय तो उसकी महिमा स्वयं ही प्रकट हो जाती है, अज्ञान के नाश से ही सिद्धि प्राप्त होती है, शिवपुराण का अध्ययन करने से अज्ञान नष्ट हो जाता है, इस संहिता में विभिन्न प्रकार के पापों का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि कौन-से पाप करने से कौन-सा नरक प्राप्त होता है।

पाप हो जाने पर प्रायश्चित्त के उपाय आदि भी इसमें बताये गये हैं, उमा संहिता में देवी-पार्वतीजी के अद्भुत चरित्र तथा उनसे संबंधित लीलाओं का उल्लेख किया गया है, चूँकि पार्वतीजी भगवान् शिवजी के आधे भाग से प्रकट हुई हैं और भगवान शिव का आंशिक स्वरूप हैं, इसलिये इस संहिता में उमा-महिमा का वर्णन कर अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् शिवजी के ही अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का माहात्म्य प्रस्तुत किया गया है।

कैलास संहिता में ओंकार के महत्त्व का वर्णन है, इसके अलावा योग का विस्तार से उल्लेख है, इसमें विधिपूर्वक शिवोपासना, नन्दी श्राद्ध और ब्रह्मज्ञानी की विवेचना भी की गई है, गायत्री जप का महत्त्व तथा वेदों के बाईस महावाक्यों के अर्थ भी समझाये गये हैं, इस संहिता के पूर्व और उत्तर भाग में पाशुपत विज्ञान, मोक्ष के लिये शिव-ज्ञान की प्रधानता, हवन, योग और शिव-ध्यान का महत्त्व समझाया गया है।

सज्जनों! भगवान् शिवजी ही चराचर जगत् के एकमात्र देवता हैं, शिवजी के निर्गुण और सगुण रूप का विवेचन करते हुये कहा गया है कि शिवजी ही हैं जो समस्त प्राणियों पर दया करते हैं, इस कार्य के लिये ही भोलेनाथ सगुण रूप धारण करते हैं, जिस प्रकार अग्नि तत्त्व और जल तत्त्व को किसी रूप विशेष में रखकर लाया जाता है,उसी प्रकार शिवजी अपना कल्याणकारी स्वरूप साकार मूर्ति के रूप में प्रकट करके पीड़ित व्यक्ति के सम्मुख आते हैं।

शिवजी की महिमा का गान ही इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय है, भाई-बहनों! समय निकालकर विशेष रूप से आज ही के दिन (सोमवार) शिव-पुराण का पाठ अवश्य करना चाहिये, क्योंकि संसार की सभी वासना-तर्षणायें शिव-पुराण के स्वाध्याय से समाप्त हो जाती है एवम् समस्त मनोकामनायें पूर्ण होकर शिव-लोक की प्राप्ति होती है ।

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