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राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में क्या बन पाएंगे उम्मीद की किरण

नई दिल्ली !  राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की खबर ने सियासी हलकों में बेचैनी पैदा कर दी है। लोकतंत्र के इस संकट वाले दौर में राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपे जाने के फैसले से कांग्रेस की राजनीति बिल्कुल साफ हो गई है। लोकसभा चुनाव 2014 की हार इतनी बड़ी थी कि कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के भाजपा की मुहिम को चुनौती देने का साहस शायद ही देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी के किसी नेता में बचा हो।

पिछले तीन सालों में कांग्रेस में बेचैनी और अफरा-तफरी का माहौल रहा है। नोटबंदी को शुरुआती समर्थन देना कांग्रेस की ऐतिहासिक भूल थी, जिसे सोनिया और राहुल गांधी की रणनीतिक समझ के घोर अभाव के रूप में हमेशा देखा जाएगा। लोकसभा चुनाव में 44 सीटों पर सिमटी कांग्रेस का आत्मविश्वास इस कदर डोला हुआ था कि संसद में विपक्ष के नेता का नाम भी खबरों में बिरले ही आता था। कांग्रेस पार्टी की इस विफलता का सबसे बड़ा खामियाजा इस देश के उन लोगों ने ङोला जिन्होंने कांग्रेस पार्टी की सेक्युलर, लिबरल, मेलजोल और राष्ट्र-प्रेमी राजनीति पर हमेशा यकीन किया था।

सत्ता में आते ही भाजपा ने नोटबंदी के जरिये जिस आर्थिक वायरस को अर्थव्यवस्था में छोड़ा, उसने धीरे-धीरे पूरे देश की नींव को चाट लिया। मीडिया, वस्तुस्थिति को लगातार नकारने और पूरे देश में गुलाबी तस्वीर बनाए रखने के लिए उल्टे सिर खड़ी हो गई। इससे मजबूर और हताश लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह सपना खरीद लिया कि जल्द ही नोटबंदी के जरिये बड़े-बड़े धन्ना सेठों का काला धन पकड़ा जाएगा और उनके अच्छे दिन शुरू हो जाएंगे जिसकी आस में उन्होंने मोदी को अपनी नेता चुना था। इन सबके बीच उन लोगों की स्थिति बेहद हास्यास्पद बन गई जिन्होंने मोदी के सपने को आशंका और गैरयकीनी से देखा। दरअसल यह पूरा घटनाक्रम इतना अतार्किक था, जहां कदम-दर-कदम लोकतांत्रिक प्रक्रिया का माखौल बना दिया गया।

साथ ही साथ किसी भी सवाल उठाने वाले पर बकौल रविशंकर प्रसाद (साइबर हनुमान) रामरक्षा माने मोदी रक्षा के लिए तैयार बैठे थे। देशभर में जगह-जगह यह प्रहसन जारी था और इन सबके बीच कांग्रेस या समूचे विपक्ष का कोई नेता परिदृश्य से अनुपस्थित था। लोकतंत्र में विपक्ष का यूं गायब होना या उसका अपहरण कर लिया जाना, लाखों लोगों की असहमति की प्रतिनिधि आवाज का गायब होना था। राहुल गांधी इस प्रहसन के तीसरे अंक यानी तीसरे साल में अपनी उपस्थिति विदेशी विश्वविद्यालयों में लेक्चर देते हुए दर्ज कराते हैं।

इस दौरान वह जगह-जगह भारतीय पत्रकारों के सवालों को खुले तौर पर नकारते हुए केवल इंटरनेशनल मीडिया से बात करते हैं। यह हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक एक महीने पहले होता है। इसके बाद मीडिया में धीरे-धीरे राहुल गांधी की अहमियत बढ़ने लगती है। नोटबंदी और जीएसटी लागू होने से पैदा हुई तकलीफों को कांग्रेस ने लोगों को महसूस कराया। कुछ इस तरह कांग्रेस खुद को लपेटती हुए आगे बढ़ती है कि ऑनलाइन दुनिया में भी राहुल गांधी की छवि को चमकाने वाले रातोंरात उभरने लगते हैं। यहां से कदम बढ़ाते हुए राहुल गांधी ठीक भाजपा के गढ़ यानी गुजरात में अपनी सारी ऊर्जा लगा देते हैं।

यह उन प्रगतिशील और भाजपा से भयानक नाराज लिबरल-सेक्युलर-एजुकेटेड तबके के लिए कितनी राहत की बात है, इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि आनन-फानन कांग्रेस के हक में विचार, आलेखों की बारिश होने लगती है। दरअसल राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाना एक परिघटना की आधिकारिक उद्घोषणा भर है। इसका होना लोकतंत्र के वायरल बुखार से वापसी का सकारात्मक संकेत जैसा कुछ है। राहुल गांधी इस बुखार की दवा बन पाएंगे यह कहना मुश्किल है पर इससे लड़ने लायक हौसला वापस पाना भी उम्मीद का एक चिराग है।

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