नई दिल्ली । राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नामांकन के साथ ही उनका निर्वाचन महज औपचारिकता रह गई। नई पीढ़ी के चेहरे के रुप में कमान संभालने जा रहे राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी को लेकर बेशक पार्टी में गर्मजोशी का माहौल है। मगर राजनीतिक वास्तविकता की मौजूदा कमजोर पिच पर लड़खड़ा रही कांग्रेस को टीम के रुप में एकजुट करने की चुनौती राहुल के लिए इस गर्मजोशी से कहीं ज्यादा बड़ी है। कांग्रेस के इतिहास के सबसे बुरे दौर में पार्टी की कमान संभालने जा रहे राहुल के लिए चुनौतियां केवल भाजपा और उसके नेतृत्व से ही नहीं बल्कि जनमानस में पार्टी की प्रासंगिकता बहाल करने की है। जाहिर तौर पर कांग्रेस की प्रासंगिकता और सियासत दोनों को नई राह देने के लिए राहुल को एक बेहद मजबूत कप्तानी पारी खेलनी होगी। राहुल के लिए यह कप्तानी पारी खेलना इसलिए भी जरूरी होगा क्योंकि पार्टी के अंदर और बाहर दोनों मोर्चे पर उनके नेतृत्व की परख इसी आधार पर होगी।
राहुल की राजनीतिक चुनौतियों का दौर उनके अध्यक्ष बनने के साथ ही शुरू हो गया है। हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात चुनाव के नतीजे उनके नेतृत्व की परीक्षा के लिए पहले सियासी बाउंसर हैं। इन दोनों राज्यों के नतीजे नेता के रुप में उनकी शख्सियत की कठिन परीक्षा है। पिछले लोकसभा चुनाव में सबसे करारी शिकस्त से रूबरू हुई बल्कि बीते साढे तीन साल के दौरान पंजाब को छोडकर लगभग सभी राज्यों के चुनाव में शिकस्त का सामना करती आयी है।
कभी केंद्र से लेकर सूबों में लगभग एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पंजाब और कर्नाटक के अलावा किसी बडे राज्य में सत्ता में नहीं है। लोकसभा में उसकी मौजूदा स्थिति की वजह से कांग्रेस विपक्ष का नेता पद तक हासिल नहीं कर सकी। पार्टी की इस हद तक खिसकी राजनीतिक जमीन को वापस लाने की चुनौती के साथ राहुल के सामने कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शख्सियत से सियासी मुकाबला करना होगा। बीते सालों में नेतृत्व् के लिए चेहरे की अहमियत जिस कदर चुनाव में सामने आयी है उसमें राहुल के लिए मोदी के नेतृत्व की शैली और अंदाज से मुकाबला करना आसान नहीं है।
राजनीतिक मोर्चे पर मोदी और भाजपा की नई तरह की आक्रामक राजनीतिक की चुनौती तो राहुल के सामने होगी ही। साथ ही कांग्रेस के भीतर भी राहुल को कई तरह की चुनौतियों से रूबरू होना पडेगा। इसमें सबसे पहले तो कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल को अपने वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर चलने के लिए अपनी शैली और उनकी अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाना होगा। पार्टी के कई अहम वरिष्ठ नेता राहुल की शैली को लेकर अंदरखाने दबी जबान में आवाज उठाते रहे हैं। बेशक उनके नामांकन के वक्त पुराने दिग्गजों ने पूरी तादाद में मौजूद रहकर राहुल का नेतृत्व स्वीकार करने का साफ संदेश दिया। अब बारी राहुल की होगी कि वे पुराने दिग्गजों के सियासी अनुभवों के सहारे पार्टी को संकट के दौर से कैसे निकालते हैं। राहुल के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को साधे रखना इस लिहाज से भी मायने रखेगा कि अब वे सीधे इनसे डील करेंगे। अभी तक सोनिया गांधी वरिष्ठ नेताओं और राहुल के बीच सेतु का काम करती रही थीं।
राहुल के लिए वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी अभी इसलिए भाी मुश्किल है कि उनकी युवा ब्रिगेड की टीम अभी इस लायक नहीं हुई कि भाजपा की मौजूदा राजनीति के दांव से मुकाबला कर सके। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में राहुल की शुरुआती सफलता में वरिष्ठ नेताओं की भूमिका कैसी रहती है यह उस पर काफी कुछ निर्भर करेगी।
कांग्रेस अध्य्क्ष के रुप में हिमाचल और गुजरात के नतीजे ही राहुल के लिए अहम नहीं होंगे बल्कि इसके बाद अगले साल मई में कर्नाटक और साल के अंत में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के चुनाव में उन्हें कांग्रेस की नैया संभालनी होगी। इन चुनावों के सियासी नतीजों से ही काफी कुछ 2019 के लोकसभा चुनाव की दशा-दिशा तय होने की संभावनाएं हैं। साफ है कि अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद राहुल के पास ज्याादा प्रयोग करने के लिए समय नहीं है।
Add Comment